मंगलवार, 9 अगस्त 2011

मौसम कुछ सुहाना था,
रुत भी थोड़ी दीवानी थी |

सावन के धीमी फुहारों से 
पर्वत हल्के हरे रंग के,
नूतन छद्मावरण में लिपटा था |

बदरी अँटती - कभी - छँटती
रवि-किरण भी लुकती - छुपती |

कभी किरण पर्वत पे सुनहला रंग चढ़ाती,
तो कभी बदरी शिखर को चूमना चाहती |

जल पत्थर से संगत कर,
कल-कल-कल खनक रहा था |
झरना मस्ती में 
झन-झन-झन झनक रहा था |
पक्षियों की शोर भी घुल-मिल 
मृदु संगीत सृजन रहा था |

अपने हाँथ तुमने
मेरी हथेली पर रखे
हम संग - संग झरने तक पहुँचे |
सर्दी से थोड़ी ठिठुरन हुई
जलधार ने थोरा चोट किया |

तन भीगी , मन गीली 
आँखों में जलन
कह-दूँ  या ना असमंजस थी |

पंचतत्व से सक्ति मांग 
सूखे गले , काँपते लब से
सहमे-सहमे
मैंने कहा, मुझे तुमसे प्रेम है 
तुमसे प्रेम है....
प्रेम है..................